माहे मोहर्रम – माहे अज़ा पढ़ने का समय: 3 मिनट दीगर मज़ाहिब अपने साल का आगाज़ खुशी के साथ मनाते हैं। एक दुसरे को नए साल की मुबारकबाद देते हैं, नये कपड़े वगै़रा पहनते हैं, वगै़रा वगै़रा । मगर मुसलमानों में ये रिवाज नही है । इसकी क्या वजह है? इस बात से बहस नही के क्या इसलामी साल का पहला महीना मुहर्रमुल हराम है या ये कि साल का पहला महीना रबीउल अव्वल है। माहे मुहर्रम से साल का आगाज़ होता हो या न होता हो मगर ये तो तए है के ये महीना अहलेबैते पैग़म्बर के लिये ग़म का महीना है। इस महीने में वाक़ेऐ करबला रूनूमा हुआ जिस की याद अहलेबैते अतहार और उनके शियों के दिल को ग़म से भर देती है। एक मोतबर रिवायत जो शियों की कुतुबे अहादीस में नक़ल हुई है, में मिलता है, जिस में इमाम रज़ा (अ.स.) फ़रमाते हैं: ‘‘माहे मुहर्रम के शुरू होते ही कोई मेरे वालिद को मुसकुराता हुआ नही पा सकता था और आशूरा के दिल तक आपके चेहरे पर अन्दोह और परेशानी का ग़लबा होता था और आशूर का दिन आपके लिये मुसीबत और रोने का दिन होता था।’’ आप (अ.स.) फ़रमाते थे: ‘‘आज वो दिन है कि जिस दिन हुसैन (अ.स.) शहीद हुये हैं।’’ इस रिवायत में इमाम रज़ा (अ.स.) ने
इस्लामिक वाक़ेआत